
पूरा पंडाल माता के जयकारे से गुंजमान था। सब माता की भक्ति में डूब से गए थे। भक्ति की गहराई ही ऐसी होती है, वो पहले डूबाती है फिर पार लगाती है। तभी मंडली में रंगों की एक थाली आई। फाल्गुन का माह था और पंडित जी ने भी कहा था कि सब के चेहरे पर अबीर लगा दिया जाए। रंग तो हर्ष का प्रतीक है। हर रंग की अपनी एक दास्तां है, जो एक खूबसूरत आंख ही पढ़ सकती है। विभिन्न रंगों से भरी वो थाली आई, और सब उस थाली पर मानो टूट से परे। "अरे बस हल्का सा लगाना ", "मुझे हरा नहीं", "बस टीका कर दो दी", "अब्बे पोत दे पूरे चेहरे पे" जैसे बातों से माहौल गर्म सा हो गया। सब एक दूसरे को रंगीन कर रहे थे, लेकिन एक बूढ़ी काकी उसी पंडाल के एक कोने में बैठी दर्शक बनी हुई थी। सफेद साड़ी में बिना किसी श्रृंगार के बैठी काकी के भाव को समझ पाना बड़ा मुश्किल सा काम था। ऐसा लग रहा था काकी खुश है, फिर अगले ही क्षण लगता था कि वो दुखी है। यही कहा जा सकता है कि वो दूसरे को देख के खुश थी, लेकिन शायद अपने अंदर के किसी इच्छा के कारण दुखी थी। काकी अपने रक्तहीन सफेद हो चुके आंख से सबको टकटकी लगाए देख रही थी । मानो वो कह रही हो कि मुझे भी डूब जाने दो इन रंगों में, करने दो मुझे भी इन रंगों की अनुभूति, मेरे सूख चुके गालों को
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