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काहे की दिवाली !

आज शाम की शुरुआत नशेमन में लौटते पक्षियों की चहचहाहट से न होकर बच्चों की कोलाहल से हो रही थी। हैप्पी दिवाली , हैप्पी दिवाली ...। "ओह ! ये बच्चे चैन से सोने भी नहीं देते" , आमतौर पर दिन के समय न सोने वाली शकुंतला खिंझते हुए उठी ।

दो वर्ष पहले पति के जाने के बाद एक बड़े से घर में अकेले ही रहती है बूढी शकुंतला । बेटा – बहु , पोता –पोती होने के बावजूद भी वो अकेली है। एक बड़े शहर की चकाचौंध में बेटे ने अपनी बूढ़ी मां को भूला दिया था, पर मां कैसे अपने बेटे को बिसरा पाती! हर दिवाली ये "कौशल्या" अपने "राम" की प्रतीक्षा करती है , एक असफल प्रतीक्षा। शायद अपने बेटे के बारे में सोचते सोचते ही आंख लग गई होगी। आंख मिंचते हुए शकुंतला बालकनी में जाकर खड़ी हो जाती है , और पार्क में दिवाली मना रहे बच्चों को निहारते निहारते कहीं खो सी जाती है। कल्पना लोक में ही तो शांति मिलती है , जहां हम जो चाहे वो इच्छा पूरी कर सकते है, वरना वास्तविक दुनिया तो सिर्फ़ आकांक्षाओं के न पूरी होने से उपजी दुखों का भंडार है।


शकुंतला उस दौर में चली जाती है जहां उसके पास एक भरा पूरा परिवार था । दिवाली आने के चार दिन पहले से ही घर में उथल पुथल शुरू हो जाया करती थी। एक तरफ बढ़इ घर का फर्नीचर ठीक कर रहा होता, त

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