
सुख और दुख दो अलग अलग अहसास हैं मगर दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ,बिना दुःख के आएं सुख के मूल्य से हम अनजान रह सकते हैं और केवल सुख ही सुख मिले तो हम अहंकारी बन जाते हैं व दूसरे के प्रति संवेदना शून्य हो सकते हैं क्योंकि हमें ये अहसास तक नहीं हो सकता हैं , सामने वाला बोल रहा हैं कि वो बड़े दुःख के हालतों से गुजर रहा हैं उसको बहुत पीड़ा हैं ,वो दर्द में हैं ! ये सब बातें वो व्यक्ति नहीं समझ सकता कि जिसको कभी दर्द, पीड़ा, कठिनाई हुई ही न हो! ठीक वैसे ही अगर किसी को जीवन में केवल दर्द और पीड़ा, तनाव ,अपमान, प्रताड़ना अर्थात जीवन में केवल दुःख ही देखने को मिला हैं तब इसे व्यक्ति से कैसे कहें कि तुम खुसी की बात करो! सुख का वर्णन करो या फिर सुख को परिभाषित करो! वो कर ही नहीं सकता! क्यों! क्योकि उसको कभी सुख की अनुभूति हुई ही नहीं! (यहाँ एक लोकोक्ति कहना चाहूंगी की जांके पैर न फटे बिवाई, वो क्या जाने पीड़ पराई) तो इस प्रकार से सुख और दुःख दोनों ही मानवीय पहलू समझने के लिए आवश्यक हैं । इसीलिए सायद ईश्वर ने कर्म फल बनाया होगा कि जैसा कर्म करोगे वैसे फल भोगने होंगे हम मानवों हाँ ये दीगर हैं कि फल किस जन्म के कब भोगने हैं ,साथ ही ईश्वर (प्रकृति ने )ये भी अपने हाथ में ही नियंत्रण में रखा हुआ हैं कि कौनसे तरीके से किस कर्म का प्रतिफल मनुष्य को कब-कब,कैसा-कैसा देना व
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