
बेकसूरों की महफ़िल में
आखिर महफ़िल ही कसूर है।
लपटों से गीत में,
अंगारे भी शांत हैं,
आवाजों के इस बाजार में
सच केवल गुम सा है।
चिंगारी भड़के आग के
पर लब्जों की आग में,
आखिर हवा ही कसूर है॥
गालीबन ग़ज़ल के कुछ अल्फाज़ हैं,
ना भाय तो आखिर कलम ही कसूर है।
हजारों रंगों से भीगे जिस्म है,
जिसमें अभीर भी फिका है।
खुद बदले तो ठीक
कोई बदला कुछ बदला..
तो कहना वक्त ही कसूर है॥
कसूरों
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