उलझे रेखाओं में फंसकर,
नियति की निति में बंधकर,
वेदनाएं मैं सहता रहा,
भर उर के छेदों को हँसकर,
देख सके तो देखे दुनियाँ,
मेरे हृदय के घावों को।
अपनों में एकक मैं कितना हूँ,
सागर में अतृप्त के जितना हूँ,
कोई हाथ बढ़ाकर छूना चाहे,
शुन्य मिले बस इतना हूँ,
पढ़ सके तो पढ़े दुनियाँ,
मेरे मन की एकाकी को।
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