उन दिनों तुम मुझे पढ़ाती थी,
प्रेम की परिभाषा,
नयनों की पुस्तक से,
मधुर मुस्कान की भाषा में।
उँगलियों के कोमल स्पर्श से,
कराती थी प्रेम की अनुभूति,
अपनी पलकें मूँद,
सिखाती थी विश्वाश का अर्थ।
समस्त आशाओं को
मुठ्ठी में बाँधे,
अनदेखे भावों को,
शांत मुख मंडल पर समेटे,
कुछ न कह भी समझाती थी,
भावनाओं का भावार्थ।
अनकहे शब्दों के झंकार से,
सुनाती थी प्रेम संगीत।
मैं अबोध-सा पलकें झपकाए,
अविकल ललाट के तेज को,
पढ़ कर रह जाता था अवाक,
बिना समझे उस प्रेम को।
वह प्रेम, जिसे मैं खोजता था,
तुम्हारे मधुर सानिध्य में,
बस चाह
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