
शब्दों के मेलें लगते हैं यहाँ पर,
आया परिन्दा कहिं से एक भुला भाला।
सराय हि सहि मानलु कुछ पल कि,
राहत तो मिलि हमें ओं मेरे कृपाला॥१॥
बोरियत ना रहिं अब तो सिने में,
कुछ न कुछ कर हिं तो लेगें रंगत में।
बहती रहती हैं तरङ्गे हावाओं किं,
रङ्ग भर जाए कभि ऊफाने संगत में॥२॥
खाली था समय क्यों कि बेकारी है,
अब कुछ क्षण बित हि जाएगें बुन्ने में।
रस आए या ना आए पारखी स्
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