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धूप की छांव



न अमीर बनने की चाह थी और न ही वैभव की  

बस रोटी की लालसा में छोड़ा था गाँव

टूटी चप्पल, फटी कमीज और बेबसी,

मायूसी और मुश्किल में उलझा आग़ाज़

पास में कुछ कपडे, थोड़ा खाना,

ओह ये सिर पर सपनो की गठरी का बोझ...

कड़ी धूप और वीरान रास्ता..

कभी कभी दिख जाते कुछ लोग,

कभी भूखे कुत्ते, प्यासी चिड़िया,

जिन्हे शायद अब खाना पानी नहीं, 

मौत की तलाश है...

हमें थोड़ी देर रुकना है,

नहीं हम थके नहीं,

फिर भी बस थोड़ी देर रुकना है...

हम "धूप" की "छाव" में सुस्ताकर फिर चलेंगे...  

सामने से एक मोटर गाड़ी आई है,

गाड़ी में पुलिस है,

कुछ बड़े अफसर और एक दरोगा,

दरोगा के हाँथ में डंडा है,

हमारे हाँथ में हमारे बच्चे की उंगली ...   

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