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ख़ामोशी का तर्जुमा

जब सब बोल रहे थे, चहक रहे थे

मैंने उस दिन खामोश रहके देखा


वक़्त निकाला खुद से बतियाने के लिए

जाने कितनी बतकहियाँ थीँ

कितने किस्से थे, ख्वाब थे दरमियाँ


खुद में गुम मैं खामोश था

मेरे इर्द-गिर्द इक शोर था

हर तरह की आवाज़ों से लबरेज़,

कर्कश इतना कि रूह छिल

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