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इम्तिहाँ की घड़ी है, तेरी भी मेरी भी

क़फ़स जरूरत है आज, तेरी भी मेरी भी l

फज़ाओ ने पलट दी है बाज़ी एक चाल में

न चलेगी चालाकी आज, तेरी भी मेरी भी l

गुनाहों की अपने दलील दे रही ज़मीन सदियों से

शर्म से झुक गई हैं नजरें, तेरी भी मेरी भी l

खयाल आए शायद नस्ल को अपनी बचाने का

शफ़क़त हो गई थी गुम, तेरी भी मेरी भी l

बेज़ुबानो के लहू से सीं

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