दोषी नहीं निर्दोष है वह,। सजा यह कैसी उसने पाई।। विकार नहीं किया उसने ,। फिर क्यों गई वह सताई।। रहा मुद्दा नहीं एक का,। अनेकों है पीड़ित यहां नारी।। समान्य रही नहीं अब बात,। बन रही गंभीर समस्या भारी।। आंकड़े होने लगे हैं पार,। बढ़ने लगी है यहां दरिंदगी निर्दयी कुकर्मी मनुष्य समाज में,। फैला रहा है अधिक गंदगी।। होकर बेखौफ दरिंदा वह,। मासूमियत से जाता खेल।। सुविधाजनक इस देश में अपने,। घिनौना अपराध रही वह झेल।। समाज प्रश्न उठाता उस पर,। हो रही वह दुख में चूर।। विनम्र सी उसकी विनंती,। क्यों करता नहीं कोई मंजूर?? समाज की फटकार के भय से,। आत्मदाह सा कदम उठाती।। मुख्य कारण यही बना जो,। पनाह अपराधी को मिल जाती।। तनिक लज्जा किए बिना वह,। शिकार ढूंढने लगता आवारा।। घिनौनी मानसिकता का प्राणी,। करने लगता फिर यही दोबारा।।
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