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ताकि पहन सकूँ एक नयी सुबह

रात को सीता हूँ,

टुकड़े टुकड़े।

तब कहीं, सुबह को पहन पाता हूँ।

सुबह को पहन इठलाता हूँ,

दो क्षण, तभी,

सर चढ़ आ बैठता है दिन।

दिन को ढोए फिरता हूँ, 

मैं दिन भर।

दुल्हन सी सजी शाम का,

आलिंगन किए बिना ही,

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