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रोज शाम मर रहा हूं मैं

रोज़ सुबह बुनता हूं रोज शाम उधड़ रहा हूं मैं 

जिंदगी की उलझनों में दिन-ब-दिन उलझ रहा हूं मैं 


बुझाने गले की प्यास अपने ही आंसू गटक रहा हूं मैं 

खोया मुसाफ़िर हूं सूरज के उजालों में भी भटक रहा हूं मैं&n

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