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कुपित कृष्ण

साक्षी

कुरुक्षेत्र की पावन भूमि

वाणझड़ी से सिंचित थी,

कोख धरे वह रक्तसरोवर

मृत देहों को जनती थी ।

युद्ध नहीं यह हार-जीत का

नहीं समर सिंहासन का,

शूर-वीर की, सत्य धर्म की

कठिन परीक्षा, टक्कर थी ।



मृत्यु-प्रलय पर थिरक रहा

नृत्य भीष्म के तांडव का,

ताल तोड़ने ध्वंसनाद का

बना काल सा अर्जुन था।

छाया-काया, वज्र-आग सम

पौत्र-पितामह सम्मुख थे

महाकाल बन कवलित करने

इक दूजे का मुख टोहे ।

भावुकता के बादल अब

विषम पाश बन अर्जुन का,

तेज हरण कर इन्द्रपुत्र का

डाला यादों के कारा में ।

 

अर्जुन

बचपन में इनकी गोदी चढ़

जब कहता था ’मेरे ताता!’

हँसकर कहते, ’हूँ मैं बेटा,

तात तुम्हारे तात का ।’

जिनकी छाती रोये-सोये

श्वेत श्मश्रु धर खेले थे;

कैसे करुँ वह छत्र छिन्न

जो पिता, पितामह, त्राता थे |

रे धर्म समर! कह जीवन में

कठिन परीक्षा लेते क्यों?

निज से निज को टकराकर

चिह्नहीन बनवाते क्यों|

है बंधु-पराया कोई नहीं

क्यों बोलो, कहते ऐसा तुम?

निश्चित ही इस जग में तेरा

कोई अपना नहीं कहने का!

 

साक्षी

वाण मचलते लिए हाथ

लक्ष्य भेदते रहे पार्थ ।

पर, भीष्म कहाँ, औ तीर कहाँ?

वह वेग कहाँ? वह तेज कहाँ?

 

वीर पितामह धीर अपि

देख पौत्र को कंपित थे,

पर उनके वे प्रलय-वाण

हड़कम्प प्रचंड मचाए थे । 

देख पार्थ को विचलित यूँ

कृष्ण दिए सघन ललकार ।

काठ बने अर्जुन कानों ने

सुनी नहीं, पर, एक गुहार ।

देख सैन्य का महानाश अब

कुपित कृष्ण का क्रोध भयंकर

फूटा यूँ वाणी बनकर ।


कृष्ण

मोहग्रस्त क्यों तेज तुम्हारा?

तीक्ष्ण अस्त्र क्यों कुंठित आज?

धरती धकधक करने वाले

कदम हुए क्यों कंपित आज?

समराँगण नहीं, होमकुण्ड यह

हविषा पावन माँग रहा;

यज्ञपात्र में तूने क्यों, पर

धूल, भस्मकण भर रखा?

गंगपुत्र का करते अंत

मन में क्यों यह शोक-ताप?

कर विदा बल, वीर्य, तेज सब

गले धरे क्यों हो अवसाद?

काठसंग से जलता कीट,

अन्नसंग से पिसता वह ,

साथ अधर्मी का देने पर

शिष्टों का होता निश्चित वध ।

कवच अभेदा बन अबतक

दिए भीष्म दुष्टों का साथ;

आज युद्ध के दावानल में

बने र

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