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खत का पुलिंदा

आज बस यूँ खयाल आया

खोलूँ उस बंद पुलिंदे को

समेट रखा जिसने अपनी साँसों से

पढ़े अनपढ़े वे खत

जो तुम भेजते रहे मुझे

सांझ उषा दिवा निशा

पहर पक्ष माह वत्सर |


यूँ चले जाते थे अपनी राह

खत की बूँद टपका

ज्यों गहन सागर

रहे भँवर के साथ

अनछुआ, निर्विकार |


एक अजीब-सी महक आई

खत-पुलिंद से

हजारों मिले थे खुशबू जिनमें

उपलब्धियों की

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