
वो समंदर की दावेदारी करते हैं,
और हम नल से जल को तरसते है।
वो सपनों की मीनारें गढ़ते रहते है,
"झूठ के पुलाव" शीशमहल मे पकते है।
रौशनी की बातें बहुत की उन्होंने,
नफरत का अंधेरा कभी मिटाया नहीं।
सियासत की शतरंज में चालें चलीं,
खुद को आईना कभी दिखाया नहीं।
जो बदलने चले थे ज़माने की रीत,<
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