आशियाना's image

मेरे रास्ते अब उस मकान की ओर नहीं जाते

जहाँ मेरे घर आने को कोई इंतज़ार करता था

मेरे दर पे आने से पहले

कोई पर्दे में लिपट बाहर आ जाता था

जिस आशय में मेरी परवरिश हुई

जहाँ हर शख़्स इंसान लगा करता था

जहाँ ख़ुशियाँ रहती थी

कही तो गिला-ओ-शिक्वे भी थे

पर वो मकान घर लगता था

बस इक शख़्स की बदौलत घर भरा रहता था

वो दादी जो पुरा दिन मेरे साथ हँसते-खेलते गुज़ारती थी

उसका डाँटना भी फ़ाया का काम करता था

उसके जाने के बाद तन्हाई रहा करती है

घर अब सुनसान रहता है

अंदर जाने में भी डर सा लगता है

लेकिन अपनों की बातें मुझे खींच ले आती है

बोसीदा दर-ओ-दीवार के दरमियाँ

ख़ैर

अब तो क़ासिम पर आ रुक जाता हूँ

दर खोलते ही अजीब सी बू आती है

ऐसा लगता है हर शय ग़र्द का हिजाब डाले बैठी हो

और

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