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यूँ भी होना था

मुद्दतों से था डर जिस का, आख़िर वो हो गया

ठेस लगी, दरार आई, नाज़ुक दिल टूट गया

जीने की कहाँ ज़्यादा, चंद ही तो वजहें थीं

कुछ जो सहारे थे, उनमें एक सहारा छूट गया


नाराज़गी तो वैसे, थी ही मुझ से मुक़द्दर को

दोनों ने मिल साज़िश की, जीवन भी रूठ गया


गौहर-ए-ग़म

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