![दहेज का दंश's image](/images/post_og.png)
जलाए नए दिये फिर भी न ई कालिख सी छा ई
खुशी मेरे आंगन है कि है ऐसे क्यों विलाप ब न आ ई
ऐसे आ गया दहेज जमाने में
बाप भी बिक चुका हैं बेटी की विदाई में
आसुंओं की मत पूछो
हालत
रोना भी पड़ता हैं सुर शहनाई में
घर किसी का मत पूछो हालत दरवाजे भी रो देते हैं
दहेज एक दानव है, इस दानव में बेटीयों को खो भी देते हैं
बड़ी मांग होती सगाई में, गाड़ी, बंगला आदेश में
बाप पहले कर्ज में था, माँ भी अब डुब चुकी क्लेश में
दहेज दानव का रूप ले लिया, खा गया अनेकों वेश में
बाप शादी में भूखा ही सोता, बेटी परणाई परदेश में
मांग सुनते ही उस मालिक की याद पर याद आई
मैं तो जनक बना वो दशरथ की याद आई
ऋणी अयोध्या थी वो जनक
सुता अवध में आई
राजा जनक तो आज मैं बना राजा दशरथ की कमी खली आई
कैसे ढुँढू उस राजा को, मेरी आँख भी भर आई
कोख मेरी माताओं की अलग थी
पहले मै उसका पिता था, अब उसी पिता के घर वो बेटी वापस आई
कुछ दिनों यहाँ बागों की कोयल थी, अब वो अयोध्या की तुलसी बन आई है
यह तो एक सपना ही था, फिर मेरी आँख भर आई
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