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पुरूष भ्रम में जीता है

स्त्री बिना प्रकृति का परिचय है, व्यर्थ,

नित्य नए सृजन करने में है, सर्मथ,

प्रेम और स्वाभिमान से, जीवन बनाती है सार्थक,

उसे पता है अपने धर्म और संस्कृति का अर्थ,

स्त्री कर्मयोगी है, यही उसकी पहचान है।


उसकी खुद्दारी उसे कभी झुकने नहीं देती,

उसके अंदर की आग, उसे थकने नहीं देती,

नया सफर, न‌‌ई मंजिल फिर एक बार चुनती है,

नित्य नये सपने, फिर एक बार बुनती है,

स्त्री सत्य है, यही उसकी पहचान है।


प्र

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