
यह बात उन दिनों की है जब मैं ग्रेजुएशन कर रहा था। अक्सर मैं अपने दोस्तों के साथ ही वक्त बिताता था, लेकिन एक घटना ने मेरे दिल और दिमाग को इस कदर झकझोर दिया कि उसे भुला पाना आसान नहीं।
हफ्तेभर क्लास करने के बाद त्यौहार की वजह से दो दिन की छुट्टी मिली थी। मेरा एक दोस्त शहर से थोड़ी दूर एक गांव में रहता था। हम सुबह ही मिलने वाले थे, लेकिन देर रात तक जागने की आदत के चलते मैं सोते-सोते दोपहर कर चुका था। मैंने उसे कॉल कर बताया कि अब शाम को ही आ पाऊंगा।
वो शुरुआती गर्मियों का वक्त था; सर्दियां विदा हुए कुछ ही हफ्ते हुए थे। त्यौहार होने की वजह से ट्रांसपोर्ट में भी दिक्कत हो रही थी, और शेयर ऑटो में सवारी का वो सिलसिला, जो आम दिनों में भीड़-भाड़ से भरा रहता था, उस दिन सुना-सुना सा था। किसी तरह मुझे एक ऑटो मिला, जिसने मुझे एक ऐसी जगह पर उतार दिया जहाँ से मेरे दोस्त का घर थोड़ी दूरी पर था। वहाँ से आगे पैदल चलने के सिवा कोई विकल्प नहीं था।
सूरज ढलने की कगार पर था, लेकिन उसकी रौशनी अब भी चारों ओर फैली हुई थी। मैंने खुले मैदान से होकर बस्ती की ओर जाने वाले रास्ते पर कदम बढ़ाए ही थे कि अचानक मेरी नजर एक अजीब से घर पर पड़ी। यह घर बाकी घरों से बिलकुल अलग था, जैसे कि अकेला खड़ा हो। चारों ओर छोटी-सी दीवार थी, इतनी छोटी कि एक बच्चा भी उसे आराम से पार कर सकता था। और सबसे अजीब बात यह थी कि उस घर में एक भी खिड़की नहीं थी; बस एक दरवाजा था जो अंदर जाने के लिए था।