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रामजी मिश्र "मित्र"

#चाह

ये प्यार की विधाएँ समझे नहीं समझता,

कब अश्रु जल बरसता, कब प्रेम रस सरसता।

अब तो हुआ हूँ बेसुध बिलकुल नहीं सम्हलता,

कब प्यार में भटकता, कब दिल मेरा तड़पता।ये दिल है कि दर्द मंजर जो बढ़ती रही विकलता,

यहाँ दिल नहीं बदलता, वहां वो नहीं बदलता।।

ये कौन सी सजा है वो कौन सी विवशता,

या मैं नहीं समझता, या वो नहीं समझता।।


अब हाय पपिहरा बन बिलख रहा, हर बूँद गिराई इतर उतर।।

मैं बन के चकोरा तड़प रहा, वह मचल रही हर बदली पर।।


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