
यादों की रेल जब भी मेरे दरवाज़े पे आती है
अपने डिब्बों में किस्से वो भर के लाती है
कुछ हैं रंगीन कुछ ग़मग़ीन तो कुछ मुझे आंकते से
उन खिड़कियों से उनके क़िरदार भी हैं झांकते से
मैं इस डिब्बे से उस ड़िब्बे पे फांदती रहती हूँ
उनकी सब कड़ियों को फिर से बांधती रहती हूँ
ग़मग़ीन डिब्बों को मैं छू के गुज़र सी जाती हूँ
आंकते हैं ज
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