
अब थोड़ा मुश्किल है,
सुलह होना,
नामुमकिन सा लगने लगा है,
इस अंधेरे के बाद,
नई सुबह होना।
नफ़रत की खेती में,
डाला जा रहा है,
प्लास्टिक कोटेड यूरिया,
कोई चुनाव नहीं,
फिर भी दिलों की सरहद पर,
जबरदस्त तनाव है।
अमृतकाल का विष ,
घोला जा रहा है,
रगों में हिंदुस्तान के,
वो कट्टर हो चुका है,
उगलने लगा है ज़हर,
मीडिया में।
दिखने लगे हैं,
बाबर से लेकर सांगा तक,
टीपू से लेकर सांभा तक,
बस इंसान कम दिखते हैं,
और इंसानियत?
वो तो गौरैया सी गायब है,
आजकल।
लगाए गए हैं बहुत से लोग,
लिखने को कहानियाँ,
बनाई जा रही हैं फ़िल्में,
तोड़ने-मरोड़ने को इतिहास,
सुनाए जा रहे हैं,
चारण गीत
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