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जज़्बात और देशभक्ति

*हुआ कुछ यूं* 

हुआ कुछ यूँ के हम चल तो पड़े सफर पर,
मगर मंजिल फरेबी थी ये ठिकाना बदलती रही
 वो पिस्तौल सी आँखें' जिन्हें मासूम जाना था.. 
वो हर एक गोली पर अपना निशाना बदलती रही

शमा जलती थी जलती है और जलती रहेगी भी, 
बस शम्मा तो शम्मा है ये परवाना बदलती रही।

किसी के खातिर मुझसे ज्यादा खुद को कौन बदलेगा?
 उसने जब- जब भी चाहा मुझको मनमाना बदलती रही।

ए माँ मिल जाये मुझको तुजसा कोई चाहने वाला
 भूखी रहकर भी मेरी फरमाइशों पर खाना बदलती रही
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