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बिच्छू का डंक

'बिच्छू का डंक'


"तुम घरै जा मम्मी। मैं देखौं तो या कित्तो बड़ो साँड़ बनो फिरत है। आज मैं यखै ठठरी बार कै रह्यों। अपने बाप को अही तो आव हाथ लगा कै दिखा तैं मोहों। मैं हेंईं थाँड़ी हौं खोर मा।" मोहल्ले के बड़े बुजुर्ग उसे समझाते हैं कि "बिटिया होकै इत्तो लड़बो ठीक नोंहो।" उनकी नज़र में यह अपराध ही नहीं बल्कि पाप है और अपशब्दों का इस्तेमाल करना तो महापाप है। लेकिन ऋचा तो ठहरी महापापिन उसे तो ऐसे पाप हर दिन करने पड़ते हैं क्योंकि उसने गलत को बर्दाश्त न करने की कसम जो खाई है। जब सभी के प्रवचन सुनते-सुनते उसके कान चीखने लगे तो वह दहाड़ उठी "या...चालीस साल को जौन साँड़ खड़ो है जेखै बिटिया मोये बराबर है वा मोहो रंडी-हरजाई कै गारी देत है दाई-महातारी करत है येहे शरम नईं आऊत आ। या कया...पुन्य को काम आय..? जब येहे इत्ते बड़े ढूढुर का शरम न्हाँय तो मऊँ का न्हाँय। मोसे उरझँय से पहले आदमी का दस दइयाँ सोच लओ चहिए। अगर कौनो मोहो दस गारी दये तो मैं बीस दैहों ऊपर से अतकारी और।" ये गाली गालौच उसकी ज़िंदगी का अब एक हिस्सा बन चुका है। सब उसे 'बिच्छू का डंक' कहकर चिढ़ाते हैं। और यह उपनाम उसकी प्रकृति के अनुसार ही रखा गया है। इस उपनाम के प्रतिक्रिया स्वरूप चिढ़ाने वालों को "तोर नाश हो जा,बसवारा,ठठरी बरै। तोर सातौं जनम न बने,तोहों करिया डस ले।" ये सब सुनने को मिलता था जोकि केवल ज़बान से कहे शब्द मात्र थे दिल से दी बद्दुआ नहीं। क्योंकि उसके दिल से कभी भी किसी के लिए भी बद्दुआ नहीं निकलती थी। अपने अभी के जीवन में उसने बहुत मार खाई है। वह इतनी मार खा चुकी है कि उसे अब किसी भी तरह की मार से डर नहीं

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