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ऊब चुकी हूँ मैं !

उब  चुकी  हूँ  मैं !

हर  रोज  के  

चौके–चूल्हे से–

थक  चुकी  हूँ  मैं !

चलो ले चलो मुझे वहाँ–

जहाँ सूरज की पहली 

अनछुई किरण धरती को

प्यार  से  छूती  हो !

मुझे ले चलो वहां –

जहाँ हरे-भरे पर्वतों से

निर्झर झरते हों !

मुझे  ले  चल  वहाँ –

जहाँ दुर्गम पहाड़ों से नदियां –

स्वयं पथ-निर्माण हों करतीं

कल-कल छल-छल ध्वनि करतीं 

लक्ष्यप्राप्ति कीओर

अनवरत आगे बढ़तीं...

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