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' निर्मल - मन ' बनें

पियत सुमन रस अलि बिटप , कोल काटि फल खात ।
तुलसी  तरु–जीवी  सकल , सुमति  कुमति  कै  बात ।।
    गोस्वामी तुलसी दास – 'दोहावली'
कोल स्वार्थवश वृक्ष को ही काट देता है । मधुप, बिना क्षति पहुँचाए , वृक्ष से रस ग्रहण कर लेता है। दोनों ही तरुजीवी हैं। कुमति और सुमति में यही अंतर है । कुबुद्धि तो स्वार्थी है , जबकि सद्बुद्धि अपने साथ - साथ परहित में रत रहती है ।
मनु मलीन तन सुंदर कैसे ,
विष रस भरा कनक घट जैसे । (गोस्वामी जी)
अर्थात् –
सोने के घड़े में 'विष' सुशोभित नहीं होता ।
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