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कविता की क्रांति-धारा

मैंने देखा –
सद्यः एक कविता 
दौड़ पड़ी ....
छद्मावरण को तोड़ती
सारे भ्रमों को छोड़ती
टूटे दिलों को  जोड़ती
जीत का उद्घोष करती 
चल पड़ी कविता ....

आक्रोशित निःशब्द-शांति में
क्रान्ति – ध्वनि – धारा बहाती
राह   के   विघ्नों   को   हरती
आम  जन  की   बात  करती
बढ़ चली कविता !

माना कि –
इसकी क्रांति -धारा
होती नहीं प्रत्यक्ष है 
पर, अंदर ही अंदर 
वह सदा –
बहती  बहुत ही तीब्र है ।

आन्तरिक साहस है इसमें 
व्योम–सा अपनत्व  इसमें 
संघर्ष का है ममत्व&
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