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अहम् ब्रह्मास्मि

हर एक यथा सन्दर्भ में, मैं स्वयं का अंतर्द्वंद हूँ |

अपने ही छंद में बंद मैं, स्वयं-कहा स्वच्छंद हूँ||


गद्य में मैं, पद्य में मैं,हर कथा का सार हूँ |

मैं ही मैं से न मिली, तो मैं ही अपनी हार हूँ ||


प्रेम पथ की जीत मैं, तो द्वेष का मैं दंड हूँ |

अपने ही छंद में बंद मैं, स्वयं-कहा स्वच्छंद हूँ ||


परम्परा का प्राण मैं, नयी रीत का प्रारम्भ हूँ |

वेदना की करुण व्यथा, मैं नए गीत का आरम्भ हूँ ||


शनैः शनैः जो रस घुले, उस पुष्प का मकरंद हूँ |

अपने ही छंद में बंद मैं, स्वयं-कहा स्वच्छंद हूँ ||


छद्म-आडम्बर लिप्त मैं, और सत्य का सत्कार भ

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