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मैं घर का मर्द हूं , मैं रो नहीं सकता

मैं घर का मर्द हूं

मैं रो नहीं सकता

चाहे कितना भी दर्द भरे दुनिया मेरे दिल में,

भोंकती रहे लाखों छुरियां,

टूटा हुआ सा, बिखरा पड़ा रहूंगा मैं

आंखें शून्य में गड़ा कर

( मानो जैसे पत्थर)

गिनता रहूंगा खुद को ही,

लेकिन,

मैं घर का मर्द हूं

मैं रो नहीं सकता


ज़माने ने मुझे यही सिखाया है

हम मर्द जाति हैं,

मजबूत होते हैं, कठोर होते हैं,

हृदय की जगह पत्थर बांधे घूमते हैं

लेकिन सुनी है कभी तुमने

हमारी बातें , हमसे ही,

मैं मां के आंचल में लिपट कर अब

सुकून से दो पल उसे अपने दिल का हाल बता भी नहीं सकता

(समझ वो भले ही सब जाती है)

डर है कि कहीं पलकों के किवाड़ों से कोई बात टपक ना जाए

क्योंकि,

मैं घर का मर्द हूं

मैं रो नहीं सकता


ज़िन्दगी के पड़ाव पार नहीं कर पाता कभी-कभी

मैं थक जाता हूं, मायूस हो जाता हूं

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