
अपने ही घर में रानी को अबला बनाया था
केश खींच दुःशासन जब भरी सभा में लाया था
झुक गए लज्जा से सर नारी सम्मान उछाला था
वीरों की सभा का भयानक वो नजारा था
धर्मराज ने बीच सभा में कौन सा धर्म निभाया था
हार गए खुद को किस अधिकार से पत्नी को दांव लगाया था
हाथ जोड प्रश्न तमाम वो नारी सब अपमान में
बिलक- बिलक पूछ रही हक अपने सम्मान के
फिर जा राजा के पास गुहार कर रही विश्वास से
सर झुक गया राजा का पुत्र मोह अंधकार में
मर्यादा की सीमा भी अब सीमा को थी लांघ गई
असभ्य
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