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जिस रस्ते पर

जिस रस्ते पर चलना था वो रस्ता खो चुका हूॅं मैं
कर दो ऐलान बस्ती में नाकाम हो चुका हूॅं मैं

हुई अब नींद भी दुश्मन नहीं है ख़्वाब भी आते
ऑंखें भी हैं धुॅंधलाई पलकें भिगो चुका हूॅं मैं

नहीं है ये कोई अंज़ाम ये है इब्तिदा-ए-ज़ीस्त
दिल में प्यास मंज़िल की अभी से बो चुका हूॅं मैं<
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