
कहते हैं —
सामाजिक न्याय अब नारा नहीं, ज़रूरत है,
पर जब कविता बनती है उसकी आवाज़ —
छपने में लगती है देर बहुत।
जैसे न्याय का पन्ना भी
किसी फाइल में दबा पड़ा हो,
या संपादक की नज़रों से
'सामाजिक' शब्द कम बिकाऊ लगता हो।
वो पूछते हैं —
"
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