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सीप और स्फटिक

मैं गहराई में डूबा सीप का मोती,

तुम छिछले पानी में बहते पाहन।

मैं चिराग नन्हे से जीव का ,

तुम स्फटिक विस्तृत शीलापटल का।

मैं डूबता उतराता अतल पर,

तुम मुस्कुराते थे पर्वतों की शिखर पर।

मैं प्रतिरक्षा की अनमोल कड़ी ,

जो सीप के गर्भ में पली-बढ़ी।

तुम मजबूत चट्टान से विलग हुऐ,

तोड़ बंधनों को बह चले।

जुड़ा अपनी जड़ों से,

गुणों को मैं बुन रहा,

हिमनद की धार पर सवार,

तू अपनी धुन में मगन रहा।

खारा पानी प्यास जगाता ,

मन में अलख जलाता,

पानी को बना रक्त,

आकार ले रहा मैं परत दर परत,

प्रबल वेग धार में विहंस,

तू उछल रहा दरबदर ,

मीठे पानी से तृप्त,

नहीं समय की कोई कदर।

नहीं पहुंचती सूर्य की एक किरण ,

अंधेरों में सिमट कर ,

शनैः शनैः अनवरत,

बढ़ रहा मैं अपने पथ पर।

धूप की नाव पर,

सवार हुए चमक रहा,

मंजिल का भान नहीं,

रास्ता तू भटक रहा।

सीप मेरे फलक पर ,

अमिट छाप छोड़ रही,

निरंतर तराशने से ,

चमक मेरी निखर रही।

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