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मनोव्यथा सूनी गोद की



गरजता बरसता सावन आया।

मनभावन आया ।

प्यासी धरती जो थी कुम्हलाई ,

हृदय में आकांक्षा और दित्सा भर आई।

गगन ने बरसाई रसधार,

धरती ने दिया अपना सर्वस्व वार।

माटी में पहले ना थी सुगंध ,

पानी में भी ना घुला था मकरंद ,

मिलन की है यह सुवास ,

सोंधी सोंधी वायु हुई आज ।

भाषा से परे शब्द हुए मुखरित,

मधुरिम स्वप्न हुए अंकुरित ।

धरती ने चित्ताकर्षक गीत गुनगुनाया,

प्रणयातुर गगन धरा पर उतर आया।

विकलता को मिली स्थिरता,

नैनों में भर आई आर्द्रता ।

धुल गया सारा विराग ,

प्रकृति का हुआअलौकिक श्रींगार ।

हरित साड़ी ,

फूलों की किनारी ,

लताएँ हर्षाईं,

अम्बर को समेटने बाहें फैलाईं।

क्षितिज पर इंद्रधनुष का हिंडोला ,

डाल गगन धरा संग झूला ।

नीला गगन हो रहा मगन ,

पुलकित धरा ,उर्वर जीवन ।


विस्तृत धरती का इक कोना ,

बना नीरवता का बिछौना,

कठोर हुआ

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