“पर तुमने मन-द्वार किसी के बुझते दीप न देखे होंगे”
मधुर मधुर अधरों की हाला
मान लिया छलकाई होगी,
अलकों में उलझी तरुणाई
मन्द मन्द बिखराई होगी,
लेकिन झुकी पलक के आंसू बहते कभी न देखे होंगें।
दर्पण से शरमाई होंगीं
नजरें लाख़ चुराई होंगीं,
भाव भरे बन्धन अर्पण की
पी मदिरा मुस्काई होंगीं,
लेकिन पीड़ा पीने वाले अश्क़ कभी न देखे होंगें।
संध्या नयन सजाती होंगी
गजरे में गुंथ जाती होंगी,
बन मौसम की राजकुमारी
अलसाई इठलाती होंगी,
किन्तु यादों की पुस्तक में सूखे फूल न देखे
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