
सुनो
तुम कैसी हो
उधर,
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हो सके तो संविधान में दिखना।
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कलियों के अधरों पर
ओस की चंद बूंदें आ बैठीं,
किन्हीं नर्म गालों पर
संभवतः ख़्यालों पर,
न जाने क्यूं
उष्ण आँसू का आभास होने लगा,
स्वप्न संजोने लगा
ओस मिटने पर भी,
गालों पर आंसू देखता रहा
गए पल समेटता रहा,
मैं,
सुनो
तुम कैसी हो
उधर।
इधर
दूर फैले आकाश में
उड़ता पक्षी
पंख फड़फड़ाता
अचानक
कल्पना-सूरज छिप जाता
बादल में विवशता के,
थका पक्षी
लौटता
एक सुनसान घोंसले मे
हार कर हौसले में,
उम्र बढ़ती कामनाओं की
उम्र घटती संभावनाओं की,
भाव लतिका !
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