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आलम-ए-हस्ती

जिगर में माद्दा है उनके तो

बेनूर सयारे शुआ-ए-रोशनी भी मोड़ देते हैं।


ऐसे भी मुसाफिर हैं जो थक जाते हैं कुछ ही दूर चल कर

किसी नखलिस्तान की आगोश में सो जाते हैं उनके हौसले

सेहरा फतह करने की ख़्वाहिश को,

किसी दरख़्त के साये में सुस्ताने छोड़ देते हैं।


मंजिल-ए-मकसूद की फितरत ही ऐसी है

काँटे बिछाना तो काम है उसका

दर्द से गुजरना ही आलम-ए-हस्ती है

आप डर कर रस्तों पे चलना छोड़ देते हैं।


खुद से वादा करते हैं पर निभाना नहीं आता

आप तो मौके-बे-मौके कसमें तोड़ देते हैं।

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