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वो दिन और मन

वो दिन भी कितने अच्छे थे

जब गाँव में घर सब कच्चे थे

भूख-प्यास सब भूले थे

जब नीम की डाल पे झूले थे

खूब बिजलियाँ गिरती थीं

वो जब पनघट पर पानी भरती थी

फागुन की मस्त हवाओ में

एक नशा तैरता रहता था

रंग से नहलाने भाभी को

देवर घात लगाये बैठा रहता था

सरसो के पीले फुलों में

मधुर रागनी घुलती थी

तीतली के कोमल पंखों से

कहाँ नजर हमारी हटती थी

खेतों की कच्ची पगडंडी पर

संग बाबा के रोटियाँ खाते थे

बड़ी लम्बी दौड़ लगाते थे

जब बाग से आम चुराते थे


आह!

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