एक मैं हूँ, बारिश और ये रात सुहानी है
और साथ चाय के कितनी हुईं कहानी हैं
चुस्की चुस्की कितने किस्से दफन हुए
और कैद काँच में गर्माहट बेगानी है
इस सर्द सड़क को मेरे सफर का क्या मालूम
अपनी मंज़िल खुद से ही मुझे बनानी है
सब आयेंगे, ठहरेंगे, मिलकर खुश होंगे
ये रातें आँसू वाली आप बितानी हैं
एक मैं हूँ, बारिश और ये रात सुहानी है
ये टिमटिम मैडम सबको राह दिखाती है
यूँ बीता इनका बचपन और जवानी है
अपना किस्सा थोड़ा मिलता जुलता है
हम खड़े हुए हैं, दुनिया आनी जानी हैं
एक मैं हूँ, बारिश और ये रात सुहानी है
ये भीड़ सरीखे मेरे ख्वाब कुछ ढूँढ रहे
कहते, सबको एक सच्चाई दिखलानी है
मैं कहता रहता हूँ, "मैं बहता रहता हूँ!"
ये अंदर बहती रेत या बहता पानी है?
एक मैं हूँ, बारिश और ये रात सुहानी है
कुछ झूठे वादे कार सरीखे भाग रहे
जिनको मुझसे अपनी लाज बचानी है
मेरा क्या है! मैं फ़क़ीर दो पैसे का!
जिसके अंदर है बचपन बाहर जवानी है
एक मैं हूँ, बारिश और ये रात सुहानी है
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यह कविता इस तस्वीर की देन है। डी वाई पाटिल यूनिवर्सिटी, निगड़ी, पुणे, के पास एक चाय की टपरी पर, बारिश की एक शाम में, खड़े हुआ चाय पीते पीते, जो जो अनुभव हुए , वे सभी इस कविता के माध्यम से साझा करने के कोशिश की है।
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