
दादा के पिता १०४ बरस दुनिया में रहे
मृत्यु के दो दिन पहले तक कहते रहे 'मरूंगा नहीं'
भगवान् को चुनौती देते रहे
'जो उखाड़ना है उखाड़ ले ससुर'
फिर जब सांस छिछली हो गई
आवाज भीतर ही भीतर बुझने लगी
उनका अंतिम भरम तिल-तिल कर गल गया
वह जान गए कि इसे टालना संभव न होगा
उन्होंने विस्फारित नेत्रों से सबको देखा
जैसे विदा ले रहे हों
एक-एक कर सब उनसे लिपट गए
वैसे ही ज्यों बंवर लिपटी होती है पुराने घरों से
यह पहला अवसर था जब
उनकी आँखों में हार की परछाईं उग आई थी
बरामदे भर में एक अजीब मौन पसर गया
उन्होंने इशारे से ही सभी को जाने को कहा
मैं उठने लगा तो बुशर्ट खींचकर बिठा लिया
मैं उन्हें बहुत प्रिय था
जब-जब गाँव जाता हम दोनों खूब बातें करते
उनके हाथ ठण्डे थे
जैसे फ्रिज में रखी बोतलें
घनी सफ़ेद मूछें, महीन भौंहें, रूखी आंखें
और किसी अव्यक्त दुःख से ठिठुरती देह
मन इस ख़्याल से व्यग्र हो उठा कि
एक रोज मुझे भी जाना होगा ऐसे ही
सब कुछ छोड़कर
''फिर भेंट होगी'', वह मेरी गदेली पे थपकी देकर बोले
कब ? मैंने कुछ देर रहकर कहा
कुछ प्रश्न आप जवाब की अपेक्षा से नहीं पूछते
बस आप और बात करना चाहते हैं
वह कुछ नहीं बोले