
::::::अपराजिता::::::
बूंदो का गर साथ मिले तो
अविरल सी मैं सरिता बन जाऊँ।
क्यों अंधियारों से डरना , क्यों न
स्वयं जलकर सविता बन जाऊँ ।।
शब्दों का जो हो संगम तो
खुद ही एक कविता बन जाऊँ।
लक्ष्य मेरा मात्र यही
जीवन समर में "अपराजिता" कहलाऊँ।।
आनंद पुष्प जहाँ मुरझाए नहीं,
मैं एक ऐसी वाटिका बन जाऊँ ।
नकारात्मकता का रोग मिटा दें
रूप मैं उस संजीवनी का पाऊँ ।।
जीने की जिजीविषा लिए
मैं खुद एक पूर्ण जीविका हो जाऊँ।
लक्ष्य मेरा मात्र यही
जीवन समर में "अपराजिता" कहलाऊँ।।
प्रेम वर्षा से जो परिपूणर्ता लाए,
कभी ऐसी प्रेमिका बन जाऊँ।
अपनी कोख से जो नव सृजन करे
रूप ऊस मातृका का पाऊँ।।
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