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पुरुष तुम गेहूँ, वो गुलाब

- पुरुष तुम गेहूँ, वो गुलाब -


बीच पगडंडी पर खड़ा था मैं,

एक तरफ तन कर खड़ा था गेहूँ,

एक तरफ लहरा रहा था गुलाब...


यूं तो दोनों में अपने-अपने गुण थे,

पर ना जाने क्यों?

घमंड से इतरा रहा था गेहूँ.

नुकीली सी कर रखी थीं उसने बालें अपनी,

जैसे कह रहा हो, दुनिया का पेठ भरता हूँ,

मुझ जैसा कोई नहीं,

मैं तैयार हूँ, हर चुनोती के लिए...


वहीं गुलाब, महक रहा था

लहलहा रहा था

खुले दिल से, 

बिना भेद भाव के 

बाँट रहा था अपना मकरंद

हवा में घोल रहा था ख़ुशबू

पानी को तराश कर बना रहा था गुलाब जल

उसने अपने हर पंखुड़ी दान कर दी थी

ताकि उनसे बन सके इत्र, शर्बत

और ना जाने क्या क्या...


मैं खुश था, बेहद खुश

देखकर गुलाब का ऐसा समर्पण

पर इतने में ग

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