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इतवार की धूप

मुख्तसर छांव सी कहानी है,

कुछ लिखी है, कुछ मनमानी है।

हर इतवार गुनगुनी धूप पढ़ता हूं,

शोर है उसकी ख़बर आनेवाली है।


चुभती तो है, शायद नादानी है,

मगर ढूंढना भी है, आख़िर मैंने ठानी है।

लेटा हूँ घास पर वो आये बैठे साथ,

ये शाम तो ज़िद्दी है, आ जानी है।


फ़िर हफ़्ते भर वक्त की

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