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जब मैं कविता लिखता हूँ !

एकाग्र मन से अब शब्दों में उलझकर शब्दों से खेलता हूँ शब्दों को पूज्यनीय चिंतनीय मान कर ये चादर बुनता हूँ खुद को लेकर थोड़ा चिंतित के मै क्या कब क्यों करता हूँ सत्य स्वर्ग में खुद को पाता हूँ जब मैं कविता लिखता हूँ   उन्नति और सत्य को लेकर प्रगति की और जो चलता हूँ कुछ पंक्तियों से दुखी तो कुछ से खुद को देख मचलता हूँ खुद को सबसे बड़ा कवि समझ लोहो को श्रोता समझता हूँ माँ के चरण में बस सा जाता हूँ  जब मैं कविता लिखता हूँ   लिखता तो ऐसे
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