क्या चाहत..क्या अभिलाषा है..
क्यों कुछ पाने की..आशा है ?
पाना तो... केवल कर्म-फल है...
फिर बाँधी क्यों सबसे आशा है?
क्या आशा के आधीन...है मन
या मन...के बंधन में आशा है.?
इस मन-आशा के.. मंथन में
कहीं छूट गयी... अभिलाषा है.
अभिलाषा संग -संग चलने की..
कुछ देने की.. कुछ पाने की ,
कुछ बिन सोचे..कर जाने की..
दे कर ना...याद दिलाने की...
आशाओं..की डोरी थामें...
कुछ दूर अकेले...चलती हूँ ,
फिर हाथ-थाम...नभ में उड़ते
पक्षियों को देख...संभलती हूँ.
जो कतार...बांध चलते हैं
बन के प्रतीक... अपनेपन की ,
साथ सभी..को लेकर चलने की...
साथ सभी...संग बड़ने की.
कोई अकेला छुट.. जाये तो<
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