
जिगर के ज़ख़्मों पर मिरे बशर किसी की नज़र क्यूं नहीं जाती
वस्ल-ए-यार है सदाक़त तो सदा मुझ तक मग़र क्यूं नहीं आती
कारवां हबीब का मेरे कबका चल पड़ाथा म
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जिगर के ज़ख़्मों पर मिरे बशर किसी की नज़र क्यूं नहीं जाती
वस्ल-ए-यार है सदाक़त तो सदा मुझ तक मग़र क्यूं नहीं आती
कारवां हबीब का मेरे कबका चल पड़ाथा म