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आवरण के भीतर

मैं उस जगह से नही टूटता

जहाँ टूटने या काटने के कोर होते हैं

मैं उस जगह से टूटता हूँ

जहाँ मर्मस्थल सपाट, निचाट 

और कठोर होता है


मैं तब नही झुकता 

जब मेरे माथे के सामने 

किसी पुराने वृक्ष की शाख आ जाए

मैं तब झुकता हूँ जब

किसी विरूपित नन्हे पौधे की

कुम्हलाई कातर दृष्टि

नमी की आस से मुझे देखती है


मैं उस जगह से नही फटता

जहाँ फटने के दुर्बल कोण बने हो

जैसे छीमियाँ- दानों के पकने के पश्चात

अपने किनारों से फट जाती हैं

लोक* लिए जाते हैं दाने

व निस्तारित कर दिए जाते हैं छिलके,

मैं ऐसे फटता हूँ जैसे

किसी डायरी के सादे पन्ने को

चट से कहीं से भी फाड़ कर

अनुपयोगी कर देते हैं बच्चे

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