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“आंसुओ की सीप में यादों का मोती”

समय की गति बड़ी ही विचित्र होती है, जब समय अच्छा हो तो पंछी की भांति आसमान में उड़ जाता है, और बुरा हो तो किसी छोटे से घोंघे की तरह धरती पर रेंगने लगता है।

कुछ दिनों पहले जब पिताजी का फोन आया और उन्होंने कहा की "बड़े चाचा" और "आजी" की शोक सभा हरदा में रखने का सोच रहे हैं तब यकायक यह एहसास हुआ की उनके देवलोकगमन को लगभग एक वर्ष पूर्ण होने को है।

पिछली बार जब चाचा से मिला था तो उनसे कहा था, "बस चाचा, अगले साल दिल्ली पोस्टिंग हो जायेगी तो बैठ कर तसल्ली से गोष्ठी करेंगे और घूमेंगे"। आज दिल्ली पोस्टिंग हो गई है, समय भी है पर गोष्ठी करने का, घूमने का मन नहीं है।

इस एक वर्ष में उनके कई गीत और बांसुरी की धुनें गुनगुनानी छोड़ दी, तो उन्हीं के कुछ फाल्गुन के छंद, कविताएं और शायरियां पढ़नी शुरू कर दी, कुछ कमीज़ें पहननी छोड़ दी तो कभी जूते के बंध नए तरीके से बांधने की कोशिश शुरू कर दी। सब कुछ इसलिए की समय के रेंगते घोंगे को थोड़ी सी गति दे सकूं। परंतु सभी प्रयास विफल रहे, क्योंकि समय एक प्रवाहमान नदी के तरह होता है, इसे हम गति नहीं दे सकते। वह सदा बहता रहता है। जिस तरह बहाव से नदी की अनगिनत सीपियों में असंख्य मोती बनते हैं, उसी प्रकार समय के प्रवाह से यादों और अनुभवों के अनमोल मोती बनते हैं।

मैं जब भी कभी विफल, दुखी, और हताश हुआ तब चाचा ने हमेशा कहा "अरे ब
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